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ले जाऊँ कहीं उन को बदन पार ही रक्खूँ / रियाज़ लतीफ़
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ले जाऊँ कहीं उन को बदन पार ही रक्खूँ
मैं अपनी ख़लाओं को पुर-असरार ही रक्खूँ
आँखों से गिरूँ और उठूँ दष्त-ए-फ़लक तक
पानी हूँ तो सतहें मिरी हमवार ही रक्खूँ
दुनिया को भी ले आऊँ कभी नोक-ए-ज़बाँ तक
ग़ाएब है जो उस को सर-ए-इज़हार ही रक्खूँ
लम्हों की दराड़ों में उगाऊँ कोई जज़्बा
है वक़्त खंडर तो उसे मिस्मार ही रक्खूँ
ईजाद करूँ सात समावात का चेहरा
चेहरे पे तिरे लम्स का बेदार ही रक्खूँ
अन्फ़ास के नुक़्ते में सिमट आऊँ ‘रियाज़’ अब
यूँ अपने बिखरने के कुछ आसार ही रक्खूँ