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लै कौ अंग / साखी / कबीर
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जिहि बन सोह न संचरै, पंषि उड़ै नहिं जाइ।
रैनि दिवस का गमि नहीं, तहां कबीर रह्या ल्यो आइ॥1॥
सुरति ढीकुली ले जल्यो, मन नित ढोलन हार।
कँवल कुवाँ मैं प्रेम रस, पीवै बारंबार॥2॥
टिप्पणी: ख-खमन चित।
गंग जमुन उर अंतरै, सहज सुंनि ल्यौ घाट।
तहाँ कबीरै मठ रच्या, मुनि जन जोवैं बाट॥3॥182॥