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लो! चित्र वीथिकाएँ बंद हुई / विजय सिंह नाहटा

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लो! चित्र वीथिकाएँ बंद हुई
झरती सांझ के नीम अंधेरे में न देख पाया
वो अंतहीन दीर्घा
जहाँ टंके है अगणित चित्र शिल्प
मूर्धन्य चित्रकार इस रंग विहीन युग के
एक ऐसा चित्रकार जो रंगों के बीच जन्मा
रंगों में ही बीता उसका उत्सुक जीवन
मगर, निहायत रंगहीन रही जिसकी मृत्यु
विरोधाभासी, उद्धरण शून्य, विलापरहित
उसी तरह
पढ डालता हूँ किसी कवि की प्रतिनिधि कविताओं का संचयन
कुछ देर के लिए स्थिर होकर, चंद समय में
भले न पकड़ पाया कवि की जद्दोजहद का अनन्त आकाश
जो बुनता रहा कवि ताउम्र
भले न डूब पाया अंतहीन रात्रियों के नीरव एकांत में घुले गहन आत्मालाप में
पर, मैंने पढ लिया येन केन कवि का संचयन
पाब्लो नेरूदा की न्याय तराजू का हूँ मुकम्मल गुनाहगार
जब कहीं कहा उन्होंने
" कभी एक उंगली भी मेरे खुन में न डुबाने वाले
क्या कहेंगे मेरी कविताओं के बारे में "
कभी-कभी सोचता हूँ
क्या यह दोनों घटनाएँ
लिखीं जाएंगी इतिहास में
संगीन अपराध की तरह
और, जाता हूँ सिर से पैर तक सिहर।