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लोकगीत - १ / लोकगीता / लक्ष्मण सिंह चौहान

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ब्यास के परसाद टूटी लोक-गीत रामा।
‘गीता, लोक-गीता, रचे चाहों हो सांवलिया॥
भूल चूक में लिखवा होइते अबश रामा।
देहाती गंवार हठ करैय हो सांवलिया॥18॥
शनिवार छिलैय रामा पंचमी के तिथिया हो।
संबत हजार दूव छवो हो सांवलिया॥
तन पुलकीत मन परम हुलसवा हो।
अरुण उदय केर वेर हो सांवलिया॥19॥
पुष मास पछुवा पवन बहे सन सन।
घाम महीं बैठि बैठि लिखूं हो सांवलिया॥
बिमल हिरदय छेल दिन भर लिखी लेल।
सनमुख भेल चनरदेव हो सांवलिया॥20॥
कल-बल-छल, छारि शारदा के ध्यान धरि।
मति अनुकूल गीत गढूँ हो सांवलिया॥
सरल मधुर गांव के मीठी मीठी बोलिया हो।
‘लछुमन’ चखि चखि लिखैय हो सांवलिया॥21॥
लिखि लिखी एक एक भाग करि गोता रामा।
प्रभु के चरनियां चढ़ाऊं हो सांवलिया॥
हुनको परसाद रामा सवतर बांटे चाहों।
घर घर, शहर, नगर हो सांवलिया॥22॥