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लोकतंत्र के प्रहरी / अशोक अंजुम

वे पद की जिस ऊँचाई पर हैं
उस तक पहुँचने के लिए
उन्होंने जहाँ तक हो सका
हर जुगाड़ लगाई
जिस-तिस के आगे पूंछ हिलाई।
बेईमानी के नये प्रतिमान रचे
वो सब किया
जिससे रास्ते की कोई बाधा न बचे
यानी कि
जहाँ जो कर सकते थे- किया!
जिसने जितना मांगा- दिया!
और तब पहुँचे हैं यहाँ तक
इनकी गाथा सुनाएँ कहाँ तक!
लेकिन अब
जिस पद को कर रहे हैं सुशोभित
ईमानदारी उनके साथ फोटो खिंचवा कर
महसूस करती है स्वयं को गर्वित
कर्तव्यनिष्ठा उनके आगे पानी भरती है
सच्चाई उन पर दिलो-जान से मरती है
रेडियो, टीवी, अखबार
अक्सर ही साब जी के गुण गाते हैं
सड़क से संसद तक
जिधर भी देखो
आप आजकल
लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी कहलाते हैं!