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लोकतंत्र / धूमिल
Kavita Kosh से
वे घर की दीवारों पर नारे
लिख रहे थे
मैंने अपनी दीवारें जेब में रख लीं
उन्होंने मेरी पीठ पर नारा लिख दिया
मैंने अपनी पीठ कुर्सी को दे दी
और अब पेट की बारी थी
मै खूश था कि मुझे मंदाग्नि की बीमारी थी
और यह पेट है
मैने उसे सहलाया
मेरा पेट
समाजवाद की भेंट है
और अपने विरोधियों से कहला भेजा
वे आएं- और साहस है तो लिखें,
मै तैयार हूं
न मैं पेट हूं
न दीवार हूं
न पीठ हूं
अब मै विचार हूं।