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लोकतन्त्र का संकट / रघुवीर सहाय

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पुरुष जो सोच नहीं पा रहे
किन्तु अपने पदों पर आसीन हैं और चुप हैं
तानाशाह क्या तुम्हें इनकी भी ज़रूरत होगी
जैसे तुम्हें उनकी है जो कुछ न कुछ ऊटपटाँग विरोध करते रहते हैं

सब व्यवस्थाएँ अपने को और अधिक संकट के लिए
तैयार करती रहती हैं
और लोगों को बताती रहती हैं
कि यह व्यवस्था बिगड़ रही है
तब जो लोग सचमुच जानते हैं कि यह व्यवस्था बिगड़ रही है
वे उन लोगों के शोर में छिप जाते हैं
जो इस व्यवस्था को और अधिक बिगाड़ते रहना चाहते हैं
क्योंकि
उसी में उनका हित है

लोकतन्त्र का विकास राज्यहीन समाज की ओर होता है
इसलिए लोकतन्त्र को लोकतन्त्र में शासक बिगाड़कर राजतन्त्र बनाते हैं।