लोगों के बीच / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
कोई भी ट्रेन
सुपरफास्ट या साधारण
उत्तर से दक्षिण
या पूरब से पश्चिम
साधारण दर्जे में
या आरक्षित यान में
महानगर की गहराइयों से
उपनगर में प्रवेश करते
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते
यंत्रवत्-से टिकट या पास हिलाते
स्टेशन छोड़ने के बाद
ट्रेन के रिदम में आने पर
फैला लेते हैं
कोई भी समतल धरातल अपने बीच
और चल पड़ती है ताश
यात्रियों का शोरगुल
पटरियों पर पहियों का संगीत
आभा सूर्योदय या सूर्यास्त की
भेद नहीं पाती
सिगरेट के धुएँ को
शरद की दोपहर में
जब कभी मंथर गति से
बेलौस हवा की तरह
निकलता हूँ गलियों में
बाजार में, चौक पर
कया बूढ़े, क्या जवान
बिछाकर कुछ भी
बनाकर घेरा
गिरे-झुके-से एक-दूसरे के ऊपर
खेल रहे होते हैं दो-दो हाथ
भेद नहीं पाती बीड़ियों के धुएँ को
बार-बार उनके घर से आती पुकार
गर्मियों में
किसी छाँव की ओट में
जमाकर चौकड़ी
धुँधली आँखों में भर उल्लास
हुक्के की नली को
बदलते हुए हाथ-दर-हाथ
शिकारियों-सा चौकन्नापन लिए
खेली जा रही होती है ताश।