लोगों को चाहिए हर्ष / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना
लोगों को चाहिए हर्ष, जैसेकि पेड़ों को
घने सरसराते पत्तों की हवा का मर्मर
पृथ्वी को पगों से नापते यात्रियों को
रात तारों ने दिया अथाह हर्ष का दिलासा
रिवाज़ के मुताबिक हमारी शादियाँ
होती हैं शोरोगुल और धूम-धड़ाके से
चुरा लेते हैं नर्तक चकमक से चिंगारियाँ
रोशनी झिलमिलाती और थिरकती है उनके चेहरों पर
चमचमाती है रोशनी, बादलों में, पहाड़ों पर
गो लोगों को चाहिए हर्ष । उन्होंने सिखाया है गाना
पत्थर को, काठ को, मिट्टी को, धातु को ।
इसी के लिए जूझे हैं वे समराँगण में
और उन्होंने रखा है उसे जीवित और निर्बन्ध ।
जानता हूँ मैं, मैंने लिखा है ढेर-ढेर सारा, विषाद के बारे में
जबकि चाहते हैं लोगबाग और ललकते हैं ख़ुशी को
यह कल ही था — उनका हर्षभरा आगामी कल, जिसके लिए
मैं गया रणभूमि में और बहाया मैंने अपना लहू ।
लोगों को चाहिए हर्ष, जैसे चिड़िया को आकाश
पथिक को पथ, नदी को पाट,
उन्हें चाहिए अपनी चाहत, जैसे धरती को उत्थान
ठिठुरते को मेष-चर्म और भूखे को रोटी ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना