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लोग कहते हैं यहाँ एक हसीं रहता था / ज़ुबैर फ़ारूक़
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लोग कहते हैं यहाँ एक हसीं रहता था
सर-ए-आईना कोई माह-जबीं रहता था
वो भी क्या दिन थे कि बर-दोश-ए-हवा थे हम भी
आसमानों पे कोई ख़ाक-नशीं रहता था
मैं उसे ढूँढता फिरता था बयाबानों में
वो ख़ज़ाने की तरह ज़ेर-ए-ज़मीं रहता था
फिर भी क्यूँ उस से मुलाक़ात न होने पाई
मैं जहाँ रहता था वो भी तो वहीं रहता था
जाने ‘फ़ारूक़’ वो क्या शहर था जिस के अंदर
एक डर था कि मकीनों में मकीं रहता था