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लोग जंहा खड़े है / अम्बिका दत्त

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लोग मरते नहीं
हाँ मगर ! थकते जरूर हैं
एक पीढ़ी मर रही है
एक नस्ल उग रही है

लोग जहाँ खड़े हैं
उनके आस-पास/इर्द-गिर्द
गीली और नम जमीन है
जो उनके अन्दर भरती जा रही है
निरन्तर/गहरी ठण्डी सीलन
उनके चेहरों पर गालिब है
सिर्फ तनहाई
उनकी बीमार तबियत की वजह ?
कि वो अपने लिये ढूंढते ही नहीं
कोई मजबूत जमीन
कि उन्हें शौक नहीं है
अपने लिए पसीना बहाने का
कुछ अफसोस कर रहे हैं
अपना वक्त गुजर जाने का
और कुछ इन्तजार कर रहे हैं
उनका जमाना आने का
सच ! उन्हें पता ही नहीं
वे कहाँ जा रहे हैं ?

अरे रूको !
रूको ! रूको !
इन्हें अपनी एक बात तो देते चलें
इन्हें अपनी याद तो आएगी
इसी बहाने
वर्ना तो/ये भूल चुके हैं
याद करना
अपने आप को भी

रूको ! रूको !!
इन्हें एक बात तो देते चलें
लौटते वक्त
ये जागते मिले
तो इन्हें एक सपना देंगे
लोग जहाँ खड़े हैं
उनके आस-पास/इर्द-गिर्द
खोखले ठहाके हैं
उनके प्राण बन्द हैं
दूर ....... कहीं गहरी बावड़ी में