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लोग जब भी असावधान हुए / जहीर कुरैशी

लोग जब भी असावधान हुए
तन या मन से लहु-लुहान हुए

प्यार की गंध खत्म होते ही
ज़िन्दा घर भूतहा मकान हुए

उनको भाई उड़ान की भाषा
जिनकी मुठ्ठी में आसमान हुए

जब भी चहकी है कोई ’पामेला’
तो खड़े संसदों के कान हुए

हम प्रजा वे हमारे राजा हैं
तीर हम और वे कमान हुए

सच को सच भी तो नहीं‍ कह पाए
इसलिए लोग बेजुबान हुए

ज़िन्दगी भर हमारे काम आए
अनुभवों से जो हम को ज्ञान हुए