लोग मुझे पागल कहते हैं गलियों में बाज़ारों में।
मैंने प्यार किया है मुझको चुनवा दो दीवारों में।
जाने कितनी नदियों को धनवान बनाया झरनों ने,
चाँदी जैसी लहरें गिरती देखी हैं कोहसारों में।
गीत है या फ़रियाद किसी की, नग़मा है या दिल की तड़प
इतना दर्द कहाँ से आया साज़ों की झंकारों में।
हर पनघट पर मेरे फ़साने, चौपालों पर ज़िक्र मेरा
मेरी ही बातें होती हैं बस्ती के चौबारों में।
काँप उठे हैं शाहों के दिल, महलों की बुनियाद हिली,
इश्क़ ने जब जब रक़्स किया है शाहों के दरबारों में।
सब का दिल हो अपने जैसा अनहोनी सी बात लगे,
’नक़्श’ यह क्या सोचा करते हो बैठ के अपने यारों में।