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लोग रण में उतर भी जाते हैं / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
लोग रण में उतर भी जाते हैं
युद्ध के बीच डर भी जाते हैं
जन्म लेते हैं स्वप्न आँखों में
और आँखों में मर भी जाते हैं
अपना घर भूलता नहीं कोई
लोग घर छोड़कर भी जाते हैं
बाँध कैसा है डूब में जिसकी
गाँव तो क्या शहर भी जाते हैं
हमने ऐसी उड़ान देखी है
जिसमें पंछी के पर भी जाते हैं
लक्ष्य की ओर, तीर हो जैसे
लोग कुछ दौड़ कर भी जाते हैं
वक्त देता है घाव भी लेकिन
वक्त से घाव भर भी जाते हैं