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लोग हैं अब राह में, सर्प के मानिन्द / कमलकांत सक्सेना
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लोग हैं अब राह में, सर्प के मानिन्द।
लोग बिल्कुल हो गये, सर्प के मानिन्द।
दिन दहाड़े देवता, रात आदमखोर
लोग चेहरे ओढ़ते, सर्प के मानिन्द।
पगडण्डियाँ पहिचान खोने को विवश
लोग गड्ढों में छिपे, सर्प के मानिन्द।
आस्थाएँ रेत जैसी डूबने लगीं
लोग ऊपर तैरते, सर्प के मानिन्द।
कारखानी सभ्यता का क़ायदा यही
लोग चन्दन छोड़ते सर्प के मानिन्द।
आस्तीनें प्यार कर नहीं पातीं 'कमल'
लोग जंगल में मिले, सर्प के मानिन्द।