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लोभ / अशोक कुमार

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लोभ उन बेशुमार कपड़ों में था
जो देह ढँकने के बाद बचते थे

उन घरों में लोभ छुपा था
जो सिर छुपाने के बाद बचते थे
और खाली पड़ जाते थे निर्जन

उन स्वादिष्ट व्यंजनों में घुसा था
जो पेट भर जाने के बाद
और टूँगे जाने के बाद कचरे में डाल दिये जाते थे

उन तारों की चमक में भी था लोभ
जिससे ललचायी प्रेमिकायें प्रेमियों से उन्हें तोड़ कर लाने के वचन रखती थीं
और प्रेमी रूठी प्रेमिका के मनुहार के लिये उन्हें तोड़ कर लाने के वायदे करता था

नहीं था वहीं जहाँ जी ललचाता था
क्योंकि वहाँ उसके होने को हम तुम और सभी नकार चुके थे
कि हम तुम और सभी अपनी देह के पवित्र होने की घोषणा कर चुके थे
वहाँ उसके होने का आरोप हम नहीं सह सकते थे
और किसी अग्नि-परीक्षा से बचना चाह रहे थे।