लोहार जानता नहीं / अली अकबर नातिक़
हमारे गाँव लुहार अब दरांतियाँ बना के बेचता नहीं
तो जानता है फस्ल काटने का वक्त कट गया सरों का काटने के शक्ल में
शरल में वो जानता है बाँझ हो गई जमीन जब से ले गए नकाब पोश गाँव के मवेशियों को शहर में जो बरमाला सदाएँ के खुश्क खून बेचते है बे-यकीन बस्तियो के दरमियाँ
उदास दिल खमोश और बे-जबाँ कबाड़ के हिसार में सियाह कोयलों से गुफ़्तुगू
तमाम दिन गुज़ारता है सोचता है कोई बात रूह के सराब में
कुरेदता है ख़ाक और ढूँढता है चुप की वादियों से सुर्ख़ आग पर वो ज़र्ब
जिस के शोर से लुहार की समाअतें क़रीब थीं
बजाए आग की लपक के सर्द राख उड़ रही है धूँकनी के मुँह से
राख जिस को फाँकती है झोंपड़ी की ख़स्तगी
सियाह-छत के ना-तवाँ सुतून अपने आँकड़ों समेत पीटते है ंसर
हरारतों की भीक माँगते हैं झोंपड़ी के बाम ओ दर
जो भट्टियों की आग के हरीस थे
धुएँ के दाएरों से खेंचते थे ज़िंदगी
मगर अजीब बात है हमारे गाँव का लुहार जानता नहीं
वो जानता नहीं कि बढ़ गई हैं सख़्त और तेज़ धार ख़ंज़रों की क़ीमतें
सो जल्द भट्टियों का पेट भर दे सुर्ख़ आग से