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लोहा / बसन्तजीत सिंह हरचंद

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मैं किसी जयप्रकाश से न मिला,
किसी विनोबा के आश्रम में
वसन्त बनकर न खिला
किसी भी गांधी की
लाठी न हुआ,
मुझे किसी पारस ने न छुआ
मैं लोहा हूँ लोहा
हथौड़े का
कल का
दात्री का
हल का

(समय की पतझड़ में, १९८२)