भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लोहे का घर: तीन / शरद कोकास
Kavita Kosh से
किसी पौधे को
जड़ से उखाड़कर
कहीं और रोपने से
और उम्मीद मात्र से
क्या वह बन सकेगा
एक छायादार वृक्ष...?
क्या उसे दे सकेंगे हम
वही मिट्टी वही जल
वही धूप धरती और आकाश
क्या उसे हासिल होंगे
दुलारने वाले वही हाथ
और बच्चों और चिड़ियों की
वही चहचहाहट
क्या उसे हम बचा सकेंगे
दीमक ,कीट-पतंगों से
कुल्हाड़ियों से और
विकास के बुलडोज़रों से
लोहे के इस घर में बैठकर
सुरक्षित यात्रा करते हुए
मैं अक्सर सोचता हूँ...
खिड़की से दिखाई देते पेड़
नहीं जान सकते कभी
उखड़े पौधों का दर्द।