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लोहे के दस्तानों को क्यों अपनी पीड़ा कहती है? / शैलेन्द्र सिंह दूहन

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लोहे के दस्तानों को क्यों अपनी पीड़ा कहती है?
बस रहने दे मज़बूरी क्यों अश्कों के मिस बहती है?

ये अपनी परछाई का सिर सहलाने की धुन कैसी?
आहद-अनहद नाद नहीं पर चुप्पी की गुन-गुन कैसी?
श्रमजल की हर करवट का इतिहास बताने वाली सुन
हालातों की भटकी खुशबू तेरे भीतर रहती है।
बस रहने दे मज़बूरी क्यों अश्कों के मिस बहती है?

रोज मशीनों संग मशीनें बनने की गा कौन सुने?
पेट पकड़ चोटी तक मल में सनने की गा कौन सुने?
बीमार सुबह के कन्धों पे है लाश लदी उजयारों की
मावस वाली रात नहीं अब दिन में भी री! डहती है।
बस रहने दे मज़बूरी क्यों अश्कों के मिस बहती है?

ठंडे चूल्हों की आँखों का पानी सूका बह-बह कर,
बदन हमारा कोड़े उन के खाल उपड़ती सह-सह कर।
साँसों के सब ताने-बाने घूँट धुँएं को चटक रहे
पुरखों की वो टूटी खटिया बोझ हमारा सहती है।
बस रहने दे मज़बूरी क्यों अश्कों के मिस बहती है?