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लोहे के पिंजरे में शेर / नाज़िम हिक़मत / कविता कृष्णापल्लवी
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देखो, लोहे के पिंजरे में क़ैद उस शेर को
उसकी आँखों की गहराई में झाँको
जैसे दो नंगे इस्पाती खंजर
लेकिन वह अपनी गरिमा कभी नहीं खोता
हालाँकि उसका क्रोध
आता है और जाता है
जाता है और आता है
तुम्हें पट्टे के लिए कोई जगह नहीं मिलेगी
उसके घने मोटे अयाल के इर्द-गिर्द
हालाँकि कोड़े के निशान मिलेंगे अभी भी
उसकी पीली पीठ पर जलते हुए
उसके लम्बे पैर तनते हैं और दो ताम्बे के
पंजों की शक़्ल में ढल जाते हैं
उसके अयाल के बाल एक-एक कर खड़े होते हैं
उसके गर्वीले सिर के इर्द-गिर्द
उसकी नफ़रत
आती है और जाती है
जाती है और आती है
काल कोठरी की दीवार पर
मेरे भाई की परछाईं
हिलती है
ऊपर और नीचे
ऊपर और नीचे
अँग्रेज़ी से अनुवाद : कविता कृष्णापल्लवी