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लो आए मक्का में दाने / देवेन्द्र कुमार
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लो आए मक्का में दाने
जाग रहे रखवाले-
गाँव, घर,
सिवाने ।
ठहरा है तालों में पानी
ऐसी चुप्पी के क्या मानी
बोल रही बिटिया
बाबू गए
कमाने ।
किसकी छाया, कैसा छूना
हर कोई बन गया नमूना
खेतों, मेड़ों, जड़ें,
बहाने ।
खोल दिए नदियों ने जूड़े
दाँतों को खा गए मसूड़े
क़िस्से
कुछ नए
कुछ पुराने ।