भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लो आए मक्का में दाने / देवेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लो आए मक्का में दाने
जाग रहे रखवाले-
गाँव, घर,
सिवाने ।

ठहरा है तालों में पानी
ऐसी चुप्पी के क्या मानी
बोल रही बिटिया
बाबू गए
कमाने ।

किसकी छाया, कैसा छूना
हर कोई बन गया नमूना
खेतों, मेड़ों, जड़ें,
बहाने ।

खोल दिए नदियों ने जूड़े
दाँतों को खा गए मसूड़े
क़िस्से
कुछ नए
कुछ पुराने ।