लो उठ गए / हरीश भादानी
लो उठ गए
तेरी सराय छोड़ कर
हरफ़ों के जात्री
जाना जो है उन्हें
इस दिशा के पार
देखने भर को ही
ठहरे हैं
यहां होकर गए हों
होने की
जरूरत से बळते हुए
हम आहंग
जाते-जाते
आबनूसी कमरे की
किसी दीवार पर
सफ़ेद-ए-सुब्ह जैसी
वैसे नहीं
ऐसे भी
कटती हैं हदें
धुएँ की
मांड कर
वे चल दिए हों
ऐसी किसी
सम्भावना पर
फेर मसना
कर रही हो तुम
आया ही नहीं
अब तक
यहां से आगे
दूर तक
निकल जाने के इरादे से काई
खाली है सराय
आएं
ठहरे ही रहें वे
जिन्हें आगे न जाना हो
केवल लौटना हो
मील का पत्थर ही
बांचने भरके लिए
जो आ टिकें
क्या निस्बत हो
उनसे तुम्हारी
पहचानो ही क्यों
उन्हें तुम
भीतर से वह भी
खूब पहचाने बिना
हुआ भी है
किसी के साथ का
कोई भी अर्थ अब तक!
और फिर
भीतर से
पहचान लेना तो तभी हो
जब मैं
या फिर
तुम्हारा अपना मैं
ममेतर हो
ऐसा तो
हुआ ही नहीं है अभी तक
जाना ही है
लो चल दिए
आंख के आगे
छाते हुए
धुआंसे में
डूबी-डूबी सी
लगे तुझको
आहटें परछाइयां
तोड़ लेने
तू अपना
गूंगा अकेलापन
इतना ही
याद कर लेना
गया है जो अभी
जी लेने भर को ही बनी
यह सराय
छोड़ कर
बोल कर
बोल कर
चलते हुए
हरफ़ों का काफ़िला है वह
जनवरी’ 82