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लो दिन बीता लो रात गई / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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लो दिन बीता लो रात गई

कोमल पलकें दृग-भार बनीं, आँखों का कोश लुटा बैठा,
आशा-अभिलाषा में फँसकर, भावुक मन होश गँवा बैठा,
उजड़ी दुनिया अरमानों की, सुन्दर सपने सब टूट चुके,
उर की वीणा के तार सभी, बिखरे स्वर मादक रूठ चुके,
मधुमय गीतों का सृजन कहाँ? वह समय गया वह बात गई॥
लो दिन बीता लो रात गई

जग प्रांगण में कितने वसन्त आये, सबको उल्लास मिला,
अलियों को नव रस-पान, कलत कलियों को मोहक हास मिला,
पर मेरे मन की बगिया में, फिर से आ सकी बहार नहीं,
मुरझाई आशा-लतिका को, मिल पाई नव रसधार नहीं,
अब झुलस रहा विरहानल में, वह स्नेह-सुधा बरसात गई॥
लो दिन बीता लो रात गई

सुधियों का एक सहारा है उनके बल पर जी लेता हूँ,
सुस्मृति के कोमल तारों से, उन-घावों को सी लेता हूँ,
सपनों में बसते हुए रूप को, निर्मोही मन जाने क्या?
घायल की गति घायल जाने, निष्ठुर दुनिया पहचाने क्या?
सहता सौ-सौ आघात हृदय अब वह सुखमय सौगात गई॥
लो दिन बीता लो रात गई