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लौटकर आया तो / लीलाधर मंडलोई

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छूटता कितना कि समेटने से बाहर
घर में हर शख्‍स उदास
घबराता चीजों को छूते हुए
दीवारों को ताकता ऐसे कि याद करता कुछ

खूंटियों की खाली हुई जगह को छूता
कि उतारता अनटंगे कपड़े
खोलकर सर्द हवा में घर की खिड़कियां
बुदबुदाता देख कुछ जो निगाह से गायब
छुपाकर फेर लेता अंगुलियां झट पलकों पर
कि सुबह से आंख में कुछ बैठा और
लाख कोशिश के बाद घर किए भीतर तक

कितनी तकलीफ है कि एक अदृश्‍य तिनका
आंखों के घर को बिल्‍कुल नामंजूर
और हम हैं कि छोड़कर इस घर को
बैठे तैयार हैं कि कब निकलें
कहने को न यह जगह अपनी
और सरकारी मुलाजिम का कोई घर कैसा

हम परिंदे हैं जो कठिन मौसमों में
बदलते रहते हैं बरहमेस ठिकाने बिन चाहे
बहुत भारी है यह और बाकियों से जुदा
बेटा उदास है, बेटी-चुप
पत्‍नी गुमसुम कि ढूंढ लाए कोई
देखकर यह सब गया कि लौटा नहीं
औरों के कहने को कुत्‍ता लेकिन उसके बेटे-सा
लौटकर आया तो ढूंढेगा कहां, जाएगा किधर.