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लौटकर न आना / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
Kavita Kosh से
करते हैं समर्पण
फिर भी रखते हैं बचाकर
लौट आने के लिए
बंद गली से
भयभीत होता है मन
सब-कुछ अर्पित कर देना
होता है खाली कर देना
उड़ेल देना अपने आपको
अपनी सत्ता को
कहते रहते हैं
कल चलेंगे,
चलेंगे परसों,
तरसों,
अभी निपटाने हैं
कुछ जरूरी काम
समय तो झर रहा है
बंद मुट्ठी से भी
आ रही है रोशनी
लिखा जा रहा है लेखा
अगले ही क्षण
हम हैं भी
और नहीं भी
फ्रेम बदलते रहते हैं
एक सतत प्रक्रिया
जहाँ से चलता है
वहीं लौटता है
कभी खोजता है अपने आपको
कभी खोजता है उस श्राम को
भोगता हुआ दंड
कि छूट जाए
व्यर्थ है मुड़कर देखना
क्योंकि ये जो है
वो नहीं है
पीले से नीला
नीले से सफेद
राख में शेष नहीं रहती ऊर्जा
शेष नहीं रहता विचार का बीज
संभावित करता है जो जन्म।