लौटना महज़ लौटना नहीं होता है! / विमलेश शर्मा

गर लौटती हूँ यहाँ से
किंचित् दु:ख होगा मुझे भी
क्योंकि लौटना क्रिया सामान्य नहीं है!
कचनार का यह झुका दरख्त
तब दूनी टीस देगा
जब इसके हरे होने के पश्चात्
खिलने का समय होगा
माँ की मूरत सजी रहेगी आँखों में
या कि यकायक
उग आए आँसुओं के बीच धुँधली होगी
यह क्रिया कैसी होगी कह नहीं सकती
क्योंकि गढ़ी होगी वह अंतस् में!
हाँ! यह तय है
किसी सद्यःस्नाता की तरह
निर्मल छब लिए माँ पैठी होगी मुझमें ही!
ये कतारबद्ध अशोक के वृक्ष
यूँही ठाडे खड़े रहेंगे
मेरी स्मृतियों में
जिनकी छाँव तले मैंने बार-बार पदाघात किया था कि
वे जाग जाएँ यह जानकर
कि मैं ही उनकी वह बिसरी राधा हूँ
जिनकी छुअन को सृष्टिप्रिया का राग जानकर
वे प्रस्फुटित हुए थे
इक्कीस वर्ष का समय कम कहाँ होता है!
इस छूट रहे आँगन से
नैहर सा रिश्ता रहा है
इतनी ही उम्र का!
यहीं जन्मी , बढ़ी और बड़ी हुई
यहीं कौमार्य और मातृत्व भी
यहीं जीवन-अजीवन, राग-विराग
इन्हीं बरामदों में नवयौवना थी
यहीं जिया पूर्ण स्त्रीत्व!
लौट रही हूँ
संभवत: दर्ज़ रहूँगी पंजिका में
माहान्त और अधिकाधिक
सत्रान्त तक किसी चित्रलिपि की तरह!
पर ख़ुशी है कि तुम्हारी स्मृतियाँ
सरकारी दस्तावेज़ों सी औपचारिक नहीं है!
इसलिए यह कहन कदाचित् ठीक ही है कि
गर लौटती हूँ यहाँ से
तो किंचित् दु:ख तो होगा मुझे भी!

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.