लौटना होगा हमें / सुरेश विमल
नहीं मालूम था
कि इस तरह
दिशाहीन हो जाएंगे
ये स्वप्निल नौकाएँ
स्याह पड़ते हुए आकाश में
क्षीण होती जायेगी निरन्तर
भोर की आशा...
भयावह झंझावातों में
फंस जाने की आशंका
आतंकित करेगी पल-पल
कौन जाने कहाँ होगा
शाश्वत वसन्त से सुवासित
कल्पना का वह अद्भुत
आलोकमय द्वीप
जिसकी खोज में
जारी हुआ था
अंतहीन यात्रा का
यह सिलसिला...
छलनामयी इस यात्रा से
लौट जाना ही बेहतर है अब
ओ नौकाओं...
लौटना...
खुरदुरी और रेतीली ज़मीन के
उस हिस्से पर
जिसे गर्व से हम
अपनी मातृभूमि कहते हैं...
दिशाओं को
भोर के मंगलमय प्रकाश में
नहाते हुए
देखना चाहते हैं हम
चिड़ियों का कलरव
और गायों का रंभाना सुने
एक अरसा बीत गया है
बहुत दिनों से
नहीं देखा है
अपनी धरती के
फूलों का खिलना
ओ नौकाओं...
वसन्त
वहाँ पिघलाने लगा होगा
पहाड़ों की बर्फ़
गुनगुनाने लगी होंगी
जवान होती हुई नदियाँ
चीड़ वनों को चीरती हुई
पवन की बांसुरी
सम्मोहित करने लगी होगी
समग्र वातावरण को...
स्वप्नों की छलना में
बहुत जिए
अब और प्रवंचना नहीं
लौटना ही होगा हमें
ओ नौकाओं...