लौटा दिया शहर ने / शिवशंकर मिश्र

लौटा दिया शहर ने, वापस
गाँव नहीं ले!

घर अपना है, सब अपने हैं,
फिर भी सब ही तने- ठने हैं,
कोने- कोने अलग बने हैं;
हर खिड़की की भौंह चढ़ी है,
कसे हुए मुँह दरवाजों के,
जबड़े ढीले!

पढ़- लिखकर बेकार गए हो,
बैठे- बैठे प्राण गए रो,
लड़-लड़कर थक-हार गए तो;
कहीं नहीं पहचान शेष कुछ,
गहरे बने गढ़े, या, केवल
ऊँचे टीले!

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