भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लौटी है फिर बहारें बहारों का क्या करूँ / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
लौटी है फिर बहारें बहारों का क्या करूँ
दिलकश बहुत नज़ारें, नज़ारों का क्या करूँ
चाँदी सी चाँदनी में भीगी हुई बुलायें
पेड़ों की ये कतारे कतारों का क्या करूँ
उतरा यह शरद चंदा पानी में डोलत
करता है क्या इशारे, इशारों का क्या करूँ
मेरी शिकस्ता कश्ती साहिल पे रूक गई
कोई मुझे पुकारे, पुकारो का क्या करूँ
तन्हा हूँ मैं ज़मीं पर मेरा चाँद है कहाँ
आँखों में है सितारे सितारों का क्या करूँ
ठंडी हवायें भी मेरा तन मन जला रहीं
शबनम हुई अंगारे, अंगारों का क्या करूँ
उर्मिल चकोर की तरह अंगार चुग रही
नस नस में है शरारे, शरारों का क्या करूँ।