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लौट आ / विशाखा विधु
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पता है
कितनी थक गई हूँ
लौट आ
होंठों की मुस्कान भी नहीं छिपा पाती
मेरे माथे पर पड़ी सलवटें
तेरी फिक्र में....।
जैसे जाकर
लौटा नहीं रथ
ब्रज की धरा पर...।
जैसे छूट गयी
हरियल की लकड़ी
जैसे न आये हो राम
शबरी का सा इन्तज़ार
लौट आ..
बस लौट आ।