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लौ दे उठे वो हर्फ़-ए-तलब सोच रहे हैं / शकेब जलाली
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लौ दे उठे वो हर्फ़-ए-तलब सोच रहे हैं
क्या लिखिये सर-ए-दामन-ए-शब सोच रहे हैं
[हर्फ़-ए-तलब =बहस]
[सर-ए-दामन-ए-शब =देर रात]
क्या जानिये मन्ज़िल है कहाँ जाते हैं किस सिम्त
भटकी हुई इस भीड़ में सब सोच रहे हैं
[सिम्त = दिशा]
भीगी हुई एक शाम की दहलीज़ पे बैठे
हम दिल के धड़कने का सबब सोच रहे हैं
[दहलीज़ = दरवाज़ा; सबब = कारण]
टूटे हुये पत्तों से दरख़्तों का त'अल्लुक़
हम दूर खड़े कुन्ज-ए-तरब सोच रहे हैं
[दरख़्त =पेड; त'अल्लुक़ =रिश्ता]
[कुन्ज-ए-तरब =खूबसूरत ख़्वाब]
इस लहर के पीछे भी रवाँ हैं नई लहरें
पहले नहीं सोचा था जो अब सोच रहे हैं
हम उभरे भी डूबे भी सियाही के भँवर में
हम सोये नहीं शब-हमा-शब सोच रहे हैं
[सियाही = अंधेरा]
[शब-हमा-शब =रात के बाद रात]