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वंग वरारी / शब्द प्रकाश / धरनीदास

तुम तजि होय न दूसरो मोहि, मन वच क्रम परतीति।
तुम धरि धु्रव निश्चल भवो, प्रभु तुम प्रह्लाद उवारि।
तुम जयदेवहिँ तारिया प्रभु-सहित सुता सुत नारि॥
नामदेव तुमही कियो प्रभु तुमहि सुदामा दानी।
तुमहि कबीर कृपा किया, प्रभु तुम मीरा मरजाद।
तुम संतन की संदपदा, तुम असुरन विसमाद।
धरनी दीन अधीन भौ, एक चिंतामनि चित लाय।
विरुद विराजै रावरो, कीजै सोई उपाय॥

163.

भरम भूल कत बावरे,(कछु) अंत न आवै काम।
पानी रक्तकि रावटी,(प्रभु) दस दिवसा तोहि द्वार॥
पाँच चोर तेहि भीतरे, मूसत सहर भँडार।
कुल कुटुम्ब धन संदा, यह तब सहज प्रकार॥
रतन गँवाओ आपनो, ढूँढत नाहि गँवार।
त्रिकुटी-संगम संत विहंगम, स्रवत सुधारस धार।
बिनु गुरुगम नहि पावै कोई, कोटि करो परकार।
सुरनर मनि सब सेवही, निशि दिन वेद पुकार।
धरनी मन वच कर्मना, जीवन प्रान अधार॥