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वक़्त करता कुछ दगा या तुम मुझे छलते कभी / श्रद्धा जैन

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वक़्त करता कुछ दगा या तुम मुझे छलते कभी
था जुदा होना ही हमको हाथ को मलते कभी

आजकल रिश्तों में क्या है, लेने-देने के सिवा
खाली हाथों को यहाँ, दो हाथ न मिलते कभी

थक गया था तू जहाँ, वो आख़िरी था इम्तिहाँ
दो कदम मंज़िल थी तेरी, काश तुम चलते कभी

कुरबतें ज़ंज़ीर सी, लगती उसे हैं प्यार में
चाहतें रहती जवाँ, गर हिज्र में जलते कभी

आजकल मिट्टी वतन की, रोज कहती है उसे
लौट आओ ए परिंदे, शाम के ढलते कभी