वक़्त की आहट / रंजना गुप्ता
तुम्हारे शब्द
तलवार की तरह काट देते हैं
मेरा अँग-अँग
बघनखे की तरह छील देते है मेरी अन्तरात्मा
और उन घावो पर तुम्हारी कुटिल हँसी
तीखे तेज़ाब की तरह जेहन में उतरती है
चीर देती है मेरे जिस्म को आर-पार
पर तुम शायद भूल गए हो कि
वक़्त कभी किसी का सगा नही होता
आज तुम्हारे साथ है, कल मेरे साथ
खड़ा होगा
किसी विशाल वृक्ष को काटने से नही
ख़त्म होती उसकी विरासतें
उसके पनपने की सम्भावनाएँ
जड़ों में कभी उपयुक्त अवसर पाकर अँकुरण फूटेगा
फिर शाखाओं / कोपलों और फुनगियों के
घने छतनार विकसेंगे
जिसकी भरपूर छायाएँ मीलों पसर जाएँगी
हज़ारों-हज़ार परिन्दों का घर
उसके कोटरों में घनीभूत छाया में होगा
लेकिन तब तक तुम्हारी हवेलियाँ
खण्डहर बन चुकी होंगी
और विवश होकर
अपने जलते वजूद को दफ़नाने
इस छायादार वृक्ष के नीचे तुम्हें आना ही पड़ेगा
फिर मैं लौटूँगी किसी दिन
किसी समय / किसी जन्म में तुम्हारा उधार चुकाने
तुम्हें तुम्हारी पीड़ा से अवमुक्त कराने
और तभी होगा
इस प्रहसन का पटाक्षेप
तुम्हारी और मेरी दोनों कई पीड़ाओं का अन्त