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वक़्त के नाम एक ख़त / ज़ाहिद इमरोज़
Kavita Kosh से
ज़िंदगी बहुत मसरूफ़ हो गई है
जो ख़्वाब मुझे आज देखना था
वो अगली पैदाइश तक मुल्तवी करना पड़ा है
बचपन में लगे ज़ख़्म पर मरहम रखने के लिए
डॉक्टर ने अभी सिर्फ़ वादा किया है
कल के लिए साँसें कमाते हाथ
सुब्ह तक चाय नहीं पी सकते
लेकिन घबराओ नहीं
सब की यही हालत है
वो बता रही थी
उस ने अपनी सुहाग-रात तब मनाई
जब वो हैज़ के बरस गुज़ार चुकी थी
ज़िंदगी बहुत मसरूफ़ हो गई है
अपनी सारी पूँजी बेच कर
मैं ने चंद लम्हे ये कहने के लिए ख़रीदे हैं
कि जब कभी मैं मर गया
तो कोशिश करना
मुझे अगले जनम से ज़रा पहले दफ़ना देना