भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वक़्त को मुख़्तलिफ़ रफ़्तार से चला लेंगें / रवि सिन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वक़्त को मुख़्तलिफ़<ref>अलग अलग (varying)</ref> रफ़्तार से चला लेंगें
आज हर लम्हे की मीआद<ref>विस्तार (range)</ref> हम बढ़ा लेंगें

गर्मिये-ज़ीस्त<ref>जीवन की गर्माहट (warmth of life)</ref> पर बादे-ख़िज़ाँ<ref>पतझड़ की हवा (autumn winds)</ref> के झोंके हैं
बुझ गया दिन अगर तो शाम ये सुलगा लेंगें

क़ायदे खेल के हैं खेल में ही खो जाना
राह क्या ढूँढना मंज़िल यहीं बना लेंगें

रौशनी ओढ़ के सोता है अँधेरे का शहर
बज़्मे-बेदार<ref>जागने वालों की महफ़िल (assembly of the awake)</ref> में कुछ और हम जला लेंगें

वक़्त दरिया हुआ तैराक कुछ हुए हम भी
और हाइल<ref>रुकावट (obstacle)</ref> हुए तो शक्ले-जाविदाँ<ref>शाश्वत या चिरन्तन का रूप (form or shape of eternal)</ref> लेंगें

शब्दार्थ
<references/>