वक़्त को मोड़ें / जयप्रकाश त्रिपाठी
आओ, हम भी ख़ाली-ख़ाली ख़ुश हो लें ।
पलकें बन्द करें, सपनों के संग हो लें ।
अन्धेरी रातों की बातें नहीं करें,
सुबह के लिए लम्बी-लम्बी साँस भरें,
मेहनत के बल पर जितना भी जिएँ, मरें,
औरों से क्या, अपने से भी नहीं डरें,
अपने-अपने सुख-दुख पर हँस लें, रो लें।
इनसानों को एक-एक कर जोड़ें हम,
बुरे वक़्त में सँग-साथ ना छोड़ें हम,
मुट्ठी तानें, उठें, वक़्त को मोड़ें हम,
हथकड़ियाँ, बेड़ियाँ तड़ातड़ तोड़ें हम,
सब-के-सब कारागारों के पट खोलें।
नर्म-नर्म पत्तियाँ फूल से बतियाएँ,
भौरे और तितलियाँ भी नाचें, गाएँ,
धरती-अम्बर, दसो दिशाएँ इतराएँ,
अन्तरिक्ष का इन्द्रधनुष मन खिल जाए,
आसमान को छुएँ, हवा के सँग डोलें।
ढलें नहीं दिन, मौसम की दुश्वारी में,
प्राण खिलें इनसानों की फुलवारी में
माँ महके केशर की क्यारी-क्यारी में,
पँचम सुर हो बच्चों की किलकारी में,
पूरब के होठों को शबनम से धोलें ।
आँसू कोई बहे न बन्द लिफ़ाफ़ों में,
शब्द कोई दुख सहे न बन्द लिफ़ाफ़ों में,
ख़ुद से ख़ुद को कहे न बन्द लिफ़ाफ़ों में,
चिट्ठी कोई रहे न बन्द लिफ़ाफ़ों में,
अक्षर-अक्षर बून्द-बून्द अमृत घोलें।