वक़्त भी सजदा करता है
सच का कितना रुतबा है
ये दरिया जो सूखा है
अपने भीतर डूबा है
नींव नहीं ढहती है कभी
कलश, कंगूरा ढहता है
फूँक से आग भड़कती है
मगर दिया बुझ जाता है
मंदिर पर भी पहरे हैं
ईश्वर किससे डरता है
जब भी काँटे चुभते हैं
'हस्ती' मन में हँसता है