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वक़्त से लम्हा-लम्हा खेली है / अमीता परसुराम मीता
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वक़्त से लम्हा-लम्हा खेली है
ज़िंदगी इक अजब पहेली है
उसकी यादें भी बेवफ़ा निकलीं
सिर्फ़ तन्हाई अब सहेली है
आज मौसम भी कुछ उदास मिला
आज तन्हाई भी अकेली है
उसकी यादों ने फिर से दस्तक दी
ख़ूब मौसम ने चाल खेली है
जीने मरने के दरमियाँ ‘मीता’
रूह ने जैसे क़ैद झेली है