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वक्त काहे गँवा देल खा के / सूर्यदेव पाठक 'पराग'
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वक्त काहे गँवा देल खा के
बीच राहे ठिठक जा ना आ के
फूल के साथ ही काँट होई
खींच लऽ हाथ मत दर्द पा के
जोश भीतर अगर जाग जाई
काहिली भाग जाई लजा के
बात के बात में बात बिगड़ल
बात काहे रखीं ना बना के
प्रेम चुम्बक हवे खींच लीही
तूर के बान्ह, छोड़ी मिला के
कामना कम करऽ मन के रोकऽ
मिल सकी शान्ति ना धन कमा के
शारदा के कृपा कुछ भइल बा
बाकी लक्ष्मी के कतना गँवा के