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वक्त के किस दौर से गुजर रहा हूँ / महेश सन्तोषी

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वक़्त के किस दौर से होकर गुजर रहा हूँ मैं?
चारांे तरफ संचार माध्यमों में
एक अदभुत, अनूठी क्रान्ति है।
पर, समाज में, एक अघोषित सम्वादहीनता है
सम्बन्धों में मरघटों जैसी शान्ति है।
वक़्त के किस दौर से होकर गुजर रहा हूँ मैं

ऊपर ही ऊपर तो हम देखते-देखते लांघ जाते हैं
बड़े-बड़े देशों की सरहदें
पर अन्दर तंगदिली की यह हालत है
सांपों के बिलों पर खत्म हो रही हैं
दिलों की हदें!
वक़्त के किस दौर से होकर गुजर रहा हूँ मैं

एक और सदी कल शहीद हो गयी
इतिहास के लम्बे रास्ते पर
कुछ और कम हो गया आदमियत का कद
चीख तक नहीं सके
अनश्वर आत्मा के मरते स्वर!
वक़्त के किस दौर से होकर गुजर रहा हूँ मैं