भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वक्त ढल पाया नहीं है शाम का / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वक़्त ढल पाया नहीं है शाम का
चल पड़ा है सिलसिला आराम का
 
काम का आगाज़ हो पाया नहीं
ख़ौफ़ ले डूबा बुरे अंजाम का
 
प्यास दो ही घूँट में बुझ जाएगी
सारा दरिया है मेरे किस काम का
 
मयकशों की लिस्ट में मेरा शुमार
नाम तक लेता नहीं मैं जाम का

है नज़र बेताब क़ासिद के लिए
मुन्तज़िर हूँ मैं तेरे पैग़ाम का
 
सोशलिस्टों की मशक्कत रायगाँ
फ़र्क़ मिट पाया न ख़ासो-आम का
 
ऐ 'अकेला' काम का कुछ भी नहीं
अब तो जो भी है वो है बस नाम का