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वक्त / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’

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पल-पल, क्षिण-क्षिण कर फिसल रहा है
हाथ से वक्त का धागा रे
ओ मन... अब तू जरा संभल संभल
क्या नींद खुली, क्या जागा रे...?

न वक्त के बढ़ते कदम रुके
न कोई चाल कभी देखे,
इस समय को वश में करने की
कोई लाखों चालाकी सीखे
है वक्त का पहिया घूम रहा
स्वयं ब्रह्म इसी में लागा रे...?

ओ मन... अब तू जरा संभल संभल
क्या नींद खुली, क्या जागा रे...?

कोई राज करे कोई रंक भले
पर एक विधाता की न चले
जो आज गिरा हो गर्दिश में
कल उदयमान हो गगन मिले
वक्त ने हर एक जख्म भरे
मरहम बनकर जब लागा रे...
ओ मन. अब तू, जरा संभल संभल
क्या नींद खुली... क्या जागा रे...?

एक वक्त रहा यहाँ रामराज
वही राम कभी वनवास किए
गांधारी के सौ पुत्र रहे
सब धर्म विरुद्ध ही काज किए
जो फंसा समय के चक्रव्यूह में
अभिमन्यु क्या भागा रे...?
ओ मन... अब तू, जरा संभल संभल
क्या नींद खुली... क्या जागा रे...?

कर नवयुग की स्थापना, चल
युग बदलेगा, निश्चय हो अटल
कई क्रांतिवीर की उपलब्धि
मिली शिलालेख, थी एक पहल
स्वर्णिम अक्षर हो ज्योतिर्मय
टूटे जब श्वास का धागा रे...!
ओ मन. अब तू, जरा संभल संभल
क्या नींद खुली, क्या जागा रे...?