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वक्त / श्रीनिवास श्रीकांत

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उतार अपना नक़ाब
भेदियों सा गुज़र गया दिन
दरवाज़ों से टकराती अंधी हवा
बुहार गयी अहातों में झरे
तितलियों के पर

जड़ है वक्त का हर चलन
धड़ बना घूमे जब आदमी
लाँघता अंधेरे के रंग-बिरंगे क्यूब
बर्फ़ की तरह ठोस
कहकहों की बेजान
जिस्म की तरह रूहपोश

रूहपोश अंधेरे में
रूहपोश दिमाग सा नागवार
गुज़रता है दिन

सपनों की चमक
और मौत के सुन्दर पेचीदा आलिंगन सा
लक्ष्यहीन

आलिंगन जो करता है
हर गति को परास्त

सूरज के साथ कन्धे से लोप होता है
तितली तितली धूप का दृष्य
एक हादसा है दिनांत
वहम की ज़िद्दी चुहल-सा चालाक
पक्षियों के ढोल सा भरमीला

तहख़ानों के पार करते-करते
जैसे थक कर लुढ़क जाए सूरज
बिखरें धूप के दस्ते
अंधेरे में लड़खड़ाये
हर पड़ाव की याद

परिधि के दोहराव में
आदमी की धुरी पर
ठहरा हुआ है वक़्त

हथेली-हथेली पसरता है
चेहरों का अंधा जंगल
पहलू-पहलू दुबकती
भेद की हर रंगत
दीवार दीवार टोहते हैं
साये अपनी चौख़ट
दर्पण दर्पण खोज़ता
बिम्ब अपनी पहचान

आँख का अवशेष है सूरज
आकाश का दरख़्त है दिमाग़
सूरज, अवशेष
आकाश और दरख़्त के बीच
पानी-पानी टूटता है
दर्पण का तिलिस्म

खींचता है देह-देह
वक़्त रेखामान
कुहनी-कुहनी सरकती है रात
झरता है रफ़्ता-रफ़्ता
दरख़्त से आसमान

झरते आसमान
बिफ़रते अंधेरे
और अस्त होती चेतना के बीच
उगता है सपने का
जादुई दरख़्त

फोड़् दराज़ों को
निकलती हैं टहनियाँ
गड़ते हैं आंत-आंत
सिक्कों के पैने दांत

जलते हुए मौसम में
ढलती हुई रात के साथ
शराब के पंखों पर
उड़तेहैं
बड़े बड़े डैनो वाले पक्षी
लुटता है खोलियों मे
अधसोयी देहों का
अम्न-ईमान
अपने मुलायम डस्टर से
मिटाता है जब वक्त का भेदिया
माथे पर लिखी ईबारतें
इबारतों में जड़े हुए
शब्दों का अर्थ

एक सिलसिलेवार गिरावट
चढ़ती है अंधेरे में
ऊँची ईमारतों के ज़ीने
साल बन जाते हैं दिन
दिन दिन महीने
महीनों महीनों
अहाते फाँदती रहती है धूप
बनाते रहते कीड़े
अपने लुआब से
मिट्टी के घर

नींद में बड़बड़ाता है करोड़ीमल
नींद में बढ़ती है पेट की दर
जन्म दर जन्म
ख़तरनाक पैंतरा बदलता
नींद के वक़्त
भीड़ को फ़ुसलाते हैं
हाथी के दोहरे दांत

अपने में उल्टा लटका आदमी
देखता है उल्टी उल्टी घाटियाँ
उल्टे-उल्टे घर
घरों में रेंगती ख़ामोशी

खिड़की में बैठा पैंशनर
करता है अपनी नियति का इंतज़ार
उधार-नक़द
फहरिस्तों का मिलान

शून्य है एक हथेलियों में फिसलता
प्लेटों में ख़नकता
झांकता दरीचों से
स्वयं को दोहराता बार-बार

बही पर लिखे जाते हैं घर
नगर के नाम
उठाये अपनी बीवियों के चोग़े
बाबू करते पहली तारीख़ का इंतज़ार
राशन में ख़रीदते
मुट्ठी-मुट्ठी खेत
उगाते काग़ज़ पर पेड़
दिमाग़ की टहनियों से गिरते हैं
दृष्टियों के फल
मजमेबाज़ जब करते हैं
आज और कल में
नियति का विभाजन
नियति जो न नगर है
न संभावना
न काग़ज़ों पर जमा होती
अंकों की रोकड़





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