भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वजूद / प्रभात त्रिपाठी
Kavita Kosh से
पत्थर भी हो सकता था
घास भी
आका में चमचमाता सूर्य
और ज़मीन पर घिसटता पाँव
कुछ भी हो सकता था
वजूद का अर्थ
अगर चेतना की रफ़्तार में
उमड़ते शब्दों के भीतर
गिरते इन्सान की कथा
लिख रहे हो
तो दुख के अनगिनत रूपाकारो को
समझने की कोशिश ज़रूर करो
पर याद रखो
एक पल ही होता है
आदमी के पास
उसके सोच-विचार को तहस-नहस करते
एक पल में
बच्चों पर गिरते बमों की बौछार हो
या उनके मासून खेल का सहज संसार
दर्ज करने की सीमाओं में ही,
गाती है ख़ुशी निर्विकार
या चीख़ता है दर्द बारम्बार
बूढ़े की मरणासन्न चीख़ के बीचोबीच
उभरें जब कल्पना के असम्भव चित्र
तब प्रेम और मृत्यु के अजब संगम में
तुम गुहारते हो उसे
तुम गरियाते हो उसे
वही सिर्फ़ वही होता है
तुम्हारे आख़िरी अन्धेरे का गवाह