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वजूद / संगीता गुप्ता
Kavita Kosh से
आईने में
चेहरा ही नहीं
पारदर्शी हो जाता है
पूरा वजूद
जिन्दगी की
उम्र की थकन,
झुर्रियां हादसों की,
सकझ अनुभवों की,
आंखो से हंसती - छलकती करुणा,
मन का उल्लास
अपनी क्षुद्रताएं असंख्य
और
अपना पूरा विस्तार -
देख पाती हूॅं
सब एक साथ
अचकचा कर
खुद को देखती हूँ
न पहचानने की हद तक
कई बार
तुम
मुझे
मुझ से
ज्यादा जानते हो