भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वनहंस / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घुग्घू के धूसर पंख उड़ जाते हैं नक्षत्र के प्राणों में-
भीगे खेत छोड़ चाँद के बुलावे पर
बनहंस खोलते हैं पाँख उनके शब्द सुनता हूँ सायँ-सायँ
एक-दो-तीन-चार अजस्र अपार....
रात के किनारे गुस्से से डैना झाड़ते।

दो-तीन इंजन की आवाज़ में भागते-भागते
पड़ारहता फिर नक्षत्र का विशाल आकाश,
हंस देह की गन्ध और दो-एक कल्पना के हंस
याद आता है बहुत पहले मुहल्ले-टोले की अरुणिमा सन्याल का चेहरा,
उड़ते-उड़ते वे पौष की चाँदनी में नीरव
पृथ्वी की सारी ध्वनियाँ और सारे रंगों के मिट जाने पर
हृदय में शब्दहीन ज्योत्स्ना के भीतर,
उड़ते हैं कल्पना के हंस।