भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वन-मिथक / अज्ञेय
Kavita Kosh से
महावन में बिखरे हैं जाति-धन पुराण।
सीमा-शिखरों के गढ़ उन्हें मढ़ते रहे हैं
ऐश्वर्य से और अभी पेड़ हैं
स्वयं ध्वस्त गौरव-अस्त।
फिर भी, फिर भी
नगर-घिरी वन-सीमा के ऊपर
मँडराते रहते हैं
आदिम प्राण...
मई, 1976