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वन में लगी हुई अग्नि को / कालिदास

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त्‍वामासारप्रशमितवनोपप्‍लवं साधु मूर्ध्‍ना,
     वक्ष्‍यत्‍यध्‍वश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकूट:।
न क्षुद्रोपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय
     प्राप्‍ते मित्रे भवति विमुख: किं पुनर्यस्‍तथोच्‍चै:।।

वन में लगी हुई अग्नि को अपनी मूसलाधार
वृष्टि से बुझाने वाले, रास्‍ते की थकान से
चूर, तुम जैसे उपकारी मित्र को आम्रकूट
पर्वत सादर सिर-माथे पर रखेगा
क्षुद्रजन भी मित्र के अपने पास आश्रय
के लिए आने पर पहले उपकार की बात
सोचकर मुँह नहीं मोड़ते। जो उच्‍च हैं,
उनका तो कहना ही क्‍या?